बदायूं। ‘अक्तूबर 1990 का वो दौर था जब चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दीपावली का समय था और मन में संकल्प था कि किसी भी प्रकार अयोध्या जाना है। 22 अक्तूबर 1990 को कुछ लोगों के साथ अयोध्या प्रस्थान किया तो बरेली से लखनऊ तक की यात्रा ट्रेन से की। हालत ये थी कि ट्रेन के हर डिब्बे में पुलिस थी। किसी यात्री के पास भगवा कपड़ा, लोटा, सूखे चने तक मिले तो उसे गिरफ्तार किया जा रहा था। राम-राम तो कहना मानों अपराध था। किसी से राम-राम करने पर भी पुलिस तुरंत पकड़ रही थी।‘
ये बताते समय वरिष्ठ कवि उमाशंकर राही पुरानी यादों में खो से जाते हैं। कहते हैं कि 30 अक्तूबर 1990 को करो या मरो के नारे के साथ हजारों कारसेवक अयोध्या की तरफ कूच कर गए थे। देश के कोने कोने से आए कारसेवक उसमें शामिल थे। वे पांच लोग थे और अयोध्या के दूसरी ओर थे। अयोध्या में प्रवेश का एक ही रास्ता सरयू पुल से होकर था लेकिन वहां पुलिस का कड़ा पहरा था। यहां लाखों कारसेवकों का दवाब जब पुलिस पर पड़ा तो पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। निहत्थे कारसेवक एक-एक करके हताहत होकर गिरने लगे। हर तरफ चीत्कार मच गई थी। आज भी उस मंजर को याद कर सिरहन होने लगती है जब सरयू में कारसेवकों का खून पानी बनकर बहने लगा था। बचते-बचते एक नाव की शरण ली और सरयू पार पहुंचे लेकिन यहां भी पुलिस ने पकड़ने का इंतजाम कर रखा था। आज भी याद है जब किसी तरह कंटीले तारों की बाड़ को कोहनियों के बल पार करते हुए अयोध्या पहुंचे थे।
हर तरफ दिखाई दे रही थीं लाशें ही लाशें
– विवादित ढांचे के पास अशोक सिंघल के घायल होने के बाद कारसेवकों का जोश और आक्रोश दोगुना हो गया था। कुछ कारसेवक ढांचे के गुंबद पर पहुंच चुके थे। यही वक्त था जब कोठारी बंधुओं को गोलियां लग गई थीं लेकिन कारसेवकों को यह सोचकर संतोष था कि उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया और गुंबद पर भगवा लहरा चुका था। उमाशंकर राही बताते हैं कि जब हर तरफ गोलियां चल रही थीं और आंसू गैस के गोले दागे जा रहे थे तो वह भी एक गली में घुस गए थे लेकिन वह बंद थी। साहस करके दीवार पर चढ़ गए और पास ही एक धर्मशाला में कूद गए थे। धर्मशाला के महंत ने सभी को एक कमरे में बंद कर दिया लेकिन गोलियाें की आवाजें कानों में गूंज रही थीं। दो घंटे बाद कुछ शांति हुई तो छत पर चढ़कर देखा। उस समय आत्मा तक चीत्कार उठी थी जब हर तरफ लाशें ही लाशें दिखाई दे रही थीं।
आंखों के सामने महंत को मार दी गोली
– उमाशंकर राही कहते हैं कि ये मंजर देखकर हर किसी के मन में पुलिस के प्रति आक्रोश भर गया था। नीचे मढ़ीनाथ छावनी के महंत खड़े थे तो पुलिस वालों ने उनसे वहां से हटने को कहा लेकिन महंत ने हटने से इंकार कर दिया। पुलिस ने कहा कि पीछे हट जाओ नहीं तो गोली मार देंगे तो महंत ने अपना सीना आगे कर दिया। इतने में ही पुलिस ने गोली दाग दी जो उनके सीने में जा लगी। ये देखकर हम सब नीचे भागे और महंत को अंदर लेकर आए। उनके सीने में घाव था लेकिन वहां कुछ दिख रहा था। उमाशंकर बताते हैं कि उन्होंने घाव में उंगली डालकर उसे निकाला तो वह रबर बुलेट थी। यह बुलेट आज भी उनके पास है। बुलेट निकल जाने के बाद महंत के घाव पर मरहम पट्टी करके उनकी जान बचाई थी। तीन नवंबर को जब कारसेवकों को वापस जाने का आग्रह किया किया तो चार नवंबर को बदायूं आ गए थे। वह कहते हैं कि आज जब राममंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है तो लग रहा है कि उन कारसेवकों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया।
दिल्ली से पैदल अयोध्या को निकले प्रभांशु व सोनू का स्वागत करते भाजपाई। स्वयं