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लोगों को बदलने का प्रयास मत कीजिएगा: कुलपति

  • कॉलेज ऑफ पैरा मेडिकल एंड साइंसेज की ओर से आयोजित पांच दिनी शिक्षक विकास कार्यक्रम

तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रोफेसर रघुवीर सिंह बोले, लोगों को बदलने का प्रयास मत करो। हर व्यक्ति आपकी पसन्द का नहीं हो सकता। प्रतिक्रिया और प्रत्युत्तर में अन्तर समझो। प्रतिक्रिया हानिकारक है। प्रत्युत्तर सोच समझ कर किया जाता है। प्रत्युत्तर की आदत डालो। प्रातःकालीन उठ कर 15 मिनट बिस्तर में ही बैठो। अपने ईष्ट का स्मरण करो। अपने परिवार और समाज के लिए प्रार्थना करो। हर सुबह अपनी सेहत के लिए एक घंटा अवश्य निकलो, जिसमें और कुछ न कर पाओ तो बस टहल आओ। परिस्थितियों को पहचान कर समाधान का प्रयास करो। परिस्थितियॉ दो प्रकार की हो सकती है, एक- जिन्हें आप नियंत्रित कर सकते हो। दूसरी- जो आपके नियंत्रण से बाहर हैं। आप उन्हीं घटना क्रम पर सफलता पा सकते हो, जो आपके नियंत्रण में होती हैं। वह बतौर मुख्य अतिथि कॉलेज ऑफ पैरा मेडिकल एंड साइंसेज की ओर से आयोजित पांच दिनी शिक्षक विकास कार्यक्रम में बोल रहे थे। प्रोग्राम में डॉ. अविनाश कुलकर्णी, डाॅ. सीमा सिंह परमार, श्रीमती भावना पाल,श्री मनीष राज शर्मा आदि मेहमानों ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

मोटीवेशनल स्पीकर श्री संजय जैन ने कहा कि हमारी भावनाओं का सीधा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। उन्होंने लुइस की खोज, हम बीमार कैसे पड़ते है, का उदाहरण देकर बताया कि इस खोज ने यह सिध्द कर दिया कि भावनाओं के दुष्प्रभाव से शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। उन्होंने मस्तिष्क एवम् मन का सम्बन्ध बताते हुए कहा कि मस्तिष्क एक कम्प्यूटर है जबकि मन उसका सॉफ्टवेयर। चिन्ता से मधुमेह, क्रोध से गुर्दे और जिगर, दुख तथा शोक से फेफड़े बीमार हो सकते हैं। हमारा सम्बन्ध भौतिक जगत, लोगों, घटनाओं आदि से सीधा जुड़ा रहता हैं। अतः हमें इन सबके प्रति अपनी भावनाओं को नकारात्मक होने से बचाना हैं। हमारा सोचने का तरीका बचपन से बनता और बिगड़ता है। सोच बदलना आसान नहीं होता है, परन्तु किसी भी बात को 21 दिन तक बोलने , सोचने और करने से वह हमारे मस्तिष्क के कम्प्यूटर में अपलोड हो जाती है। जो आप चाहते हो, उसे बार – बार कहो। सकारात्मक बातें करते रहने की आदत आपको रोगों से बचा सकती है।

यूनिवर्सिटी की एसोसिएट डीन एकेडमिक डॉ. मंजुला जैन कहती हैं, प्रसन्नता एक मानसिक स्थिति है। यह कोई बाहरी वस्तु नहीं है, जो खोजनी पड़े। यह तो हमारे मन मस्तिष्क में ही विधमान है, बस इसे पहचानने की आवश्यकता है। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया कि इफ वीनटर कॉमस केन स्प्रिंग बी फार बिहाइंड अर्थात शीत है तो बसन्त भी आएगा। दुख है तो सुख भी अवश्य आएगा । डॉ मनीष त्यागी ने कहा भावात्मक मेधा को- आत्मावलोकन, आत्मप्रबन्धन, सामाजिक अवलोकन, संबन्ध प्रबन्धक के जरिए समझा जा सकता है। आत्मावलोकन का अर्थ है, स्वंय को जानना और समझना, मैं कौन हूँ? मैं क्या कर रहा हूँ? जैसे प्रश्नों का उत्तर स्वंय में खोजना। भावनाएं उत्प्रेरक होती हैं। वह स्वंय अच्छी अथवा बुरी नहीं होती हैं। कौन – सी भावना जैसे प्रेम घ्रणा, लगाव, मोह क्रोध आदि का हम पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? इसका समुचित ज्ञान ही भावनात्मक मेधा है। भावनाओं को उनके दुष्प्रभाव से रोकना ही आत्मप्रबन्धन है।

तीर्थंकर महावीर हॉस्पिटल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ प्रेरणा गुप्ता ने बतौर मुख्या वक्ता क्रोध प्रबन्धन पर व्याख्यान देते हुए कहा कि क्रोध सब करते हैं परन्तु क्रोध स्वाभाविक भावना नहीं है। क्रोध की स्थिति में मनुष्य अलग – अलग प्रकार से व्यवहार करते है। कुछ लोग चिल्लाते हैं। मारपीट, गाली देना, शरीर का कॉपना, दांत पीसना, मुटठी बंधना हो , शरीर का अकड़ना, घूरकर देखना, तमाम हावभाव हो सकते है। हम गुस्सा करने के तरीकों को छह प्रकार से समझ सकते हैं। अंगारे की तरह है, जो पहले उसे जलाता है। तेजाब हैं जो उसी बर्तन को गलाता है, जिसमें उसे भरा जाता है। क्रोध करने के यह भिन्न तरीके हो सकते हैं। आपे से बाहर होना, चिल्लना, मारपीट आदि यह पशुवृत्ति है। मन ही मन में घुटते रहना, यह मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रुप से घातक सिध्द होता है। ताने मारना, सही बात न कहकर व्यंग्यात्क बातें कर के सामने वाले को अपमानित करना। इस प्रकार से सदैव रिश्ते खराब होते हैं। दूरियाँ बढ़ जाती है। बात कुछ और होना जबकि नाराजगी किसी और पर निकालना, बॉस का गुस्सा पत्नी पर । इच्छा अधूरी रहने का गुस्सा खाने पर निकालना, इसके उदाहरण हो सकते हैं। इस मौके पर वाइस प्रिंसिपल डॉ. नवनीत कुमार,प्रो. शिखा पालीवाल, श्री राकेश कुमार,डॉक्टर अर्चना जैन, डॉ. रुचि कांत , श्रुति सिन्हा,प्रियंका सिंह आदि की मौजूदगी रही।

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