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कुख्यात माफिया श्रीप्रकाश शुक्ला के एनकाउंटर के बाद विनोद ने उसके साथी सत्यव्रत राय को साध लिया। दोनों में खूब पटने लगी। 1999 में दोनों के खिलाफ एक के बाद एक दो केस गोरखनाथ थाने में दर्ज हो गए। कुछ सालों बाद रुपये के लेनदेन को लेकर सत्यव्रत से विनोद की ठन गई। बाहुबली पूर्व मंत्री का हाथ विनोद के सिर पर था, इसलिए वह अपराध के बाद भी बच जाता था।
बताया जाता है कि 2005 में संतकबीरनगर में डबल मर्डर के बाद पुलिस ने विनोद की घेराबंदी कर ली थी। एनकाउंटर भी हो सकता था, लेकिन पूर्व मंत्री ने पैरवी की और पुलिस घेराबंदी छोड़ लौट आई थी।
धर्मशाला बाजार से ऑटो चलवाने के साथ ही विनोद ने सूद के कारोबार को कई अन्य जिलों में फैला लिया था। ऐसे में सूद के अन्य धंधेबाजाें से विनोद और उसके परिवार की अदावत हो गई। इसके बाद विनोद गोरखपुर विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में दखल देने लगा। खुद चुनाव लड़ने की बजाय वह गोरखपुर यूनिवर्सिटी में अपने लोगों को चुनाव मैदान में उतारने लगा।
2002 में गोरखपुर यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ महामंत्री के पद पर अपने एक साथी को लड़वाया। वह चुनाव जीत गया। यहां से विनोद की पहुंच राजनीति में बड़े-बड़े लोगों से हो गई। 2004 में फिर से एक प्रत्याशी उतारा, लेकिन लिंगदोह समिति के तय नियमों की वजह से वह चुनाव नहीं लड़ सका। लोग बताते हैं कि प्रत्याशी की उम्र अधिक थी।